Showing posts with label वेताल पच्चीसी. Show all posts
Showing posts with label वेताल पच्चीसी. Show all posts

Sunday, 12 April 2015

वेताल पच्चीसी :- तीसरी कहानी

वेताल पच्चीसी :- तीसरी कहानी

वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का राजा राज्य करता था।

एक दिन उसके यहां वीरवर नाम का एक राजपूत नौकरी के लिए आया। राजा ने उससे पूछा कि उसे खर्च के लिए क्या चाहिए तो उसने जवाब दिया, हजार तोले सोना।

सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने पूछा, ‘तुम्हारे साथ कौन-कौन है?’

उसने जवाब दिया, ‘मेरी स्त्री, बेटा और बेटी।’

राजा को और भी अचम्भा हुआ। आखिर चार जन इतने धन का करेंगे? फिर भी उसने उसकी बात मान ली।

उस दिन से वीरवर रोज हजार तोले सोना भंडारी से लेकर अपने घर आता। उसमें से आधा ब्राह्मणों में बांट देता, बाकी के दो हिस्से करके एक मेहमानों, वैरागियों और संन्यासियों को देता और दूसरे से भोजन बनवाकर पहले गरीबों को खिलाता, उसके बाद जो बचता, उसे स्त्री-बच्चों को खिलाता, आप खाता।

काम यह था कि शाम होते ही ढाल-तलवार लेकर राज के पलंग की चौकीदारी करता। राजा को जब कभी रात को जरूरत होती, वह हाजिर रहता।

एक आधी रात के समय राजा को मरघट की ओर से किसी के रोने की आवाज आई।

उसने वीरवर को पुकारा तो वह आ गया। राजा ने कहा, ‘जाओ, पता लगाकर आओ कि इतनी रात गए यह कौन रो रहा है ओर क्यों रो रहा है?’

वीरवर तत्काल वहां से चल दिया। मरघट में जाकर देखता क्या है कि सिर से पांव तक एक स्त्री गहनों से लदी कभी नाचती है, कभी कूदती है और सिर पीट-पीटकर रोती है। लेकिन उसकी आंखों से एक बूंद आंसू की नहीं निकलती।

वीरवर ने पूछा, ‘तुम कौन हो? क्यों रोती हो?’

उसने कहा, ‘मैं राज-लक्ष्मी हूं। रोती इसलिए हूं कि राजा विक्रम के घर में खोटे काम होते हैं, इसलिए वहां दरिद्रता का डेरा पड़ने वाला है। मैं वहां से चली जाऊंगी और राजा दुखी होकर एक महीने में मर जाएगा।’

सुनकर वीरवर ने पूछा, ‘इससे बचने का कोई उपाय है!’

स्त्री बोली, ‘हां, है। यहां से पूरब में एक योजन पर एक देवी का मंदिर है। अगर तुम उस देवी पर अपने बेटे का शीश चढ़ा दो तो विपदा टल सकती है। फिर राजा सौ बरस तक बे-खटके राज करेगा।’वीरवर घर आया और अपनी स्त्री को जगा कर सब हाल कहा। स्त्री ने बेटे को जगाया, बेटी भी जाग पड़ी।

जब बालक ने बात सुनी तो वह खुश होकर बोला, ‘आप मेरा शीश काट कर जरूर चढ़ा दें। एक तो आपकी आज्ञा, दूसरे स्वामी का काम, तीसरे यह देह देवता पर चढ़े, इससे बढ़कर बात और क्या होगी! आप जल्दी करें।’वीरवर ने अपनी स्त्री से कहा, ‘अब तुम बताओ।’

स्त्री बोली, ‘स्त्री का धर्म पति की सेवा करने में है।’

निदान, चारों जन देवी के मंदिर में पहुंचे।

वीरवर ने हाथ जोड़कर कहा, ‘हे देवी, मैं अपने बेटे की बलि देता हूं। मेरे राजा की सौ बरस की उम्र हो।’

इतना कहकर उसने इतने जोर से खांडा मारा कि लड़के का शीश धड़ से अलग हो गया। भाई का यह हाल बहन ने भी खांडे से अपना सिर अलग कर डाला। बेटा-बेटी चले गए तो मां ने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ा और अपनी गर्दन काट दी। वीरवर ने सोचा कि घर में कोई नहीं रहा तो मैं ही जिंदा रहकर क्या करूंगा। उसने भी अपना सिर काट डाला। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह वहां आया। उसे बड़ा दुख हुआ कि उसके लिए चार प्राणियों की जान चली गई। वह सोचने लगा कि ऐसा राज करने से धिक्कार है!

यह सोच उसने तलवार उठा ली और जैसे ही अपना सिर काटने को हुआ….

देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया। बोली, ‘राजन्, मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूं। तू जो वर मांगेगा, सो दूंगी।’

राजा ने कहा, ‘देवी, तुम प्रसन्न हो तो इन चारों को जिंदा कर दो।’ देवी ने अमृत छिड़क कर उन्हें जीवित कर दिया।

इतना कहकर वेताल बोला, राजा, बताओ, सबसे ज्यादा पुण्य किसका हुआ?’

राजा बोला, ‘राजा का।’

वेताल ने पूछा, ‘क्यों?’

राजा ने कहा, ‘इसलिए कि स्वामी के लिए चाकर का प्राण देना धर्म है; लेकिन चाकर के लिए राजा का राजपाट को छोड़, जान को तिनके के समान समझ कर देने को तैयार हो जाना बहुत बड़ी बात है।’

यह सुन वेताल गायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। बेचारा राजा दोड़ा-दौड़ा वहां पहुंचा ओर उसे फिर पकड़ कर लाया तो बोताल ने चौथी कहानी कही।


वेताल पच्चीसी :- दूसरी कहानी

वेताल पच्चीसी :- दूसरी कहानी

यमुना के किनारे धर्मस्थान नामक एक नगर था। उस नगर में गणाधिप नाम का राजा राज्य करता था। उसी में केशव नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था। ब्राह्मण यमुना के तीर पर जप-तप किया करता था।

उसकी एक लड़की थी, जिसका नाम मालती था। वह बड़ी रूपवती थीं। जब वह ब्याह के योग्य हुई तो उसके माता, पिता और भाई को चिंता हुई।

संयोग से ब्राह्मण अपने किसी यजमान की बारात में गया, भाई पढ़ने चला गया। तभी उनके घर में एक ब्राह्मण का लड़का आया। लड़की की मां ने उसके रूप और गुणों को देखकर उससे कहा कि मैं तुमसे अपनी लडकी का ब्याह करूंगी। होनहार की बात की, उधर ब्राह्मण को एक लड़का मिल गया और उसने वचन दे दिया। उधर जहां ब्राह्मण का लड़का जहां पढ़ने गया था, वहां वह भी एक लड़के से वादा कर आया।

कुछ समय बाद बाप-बेटे घर में इकट्ठे हुए, तो देखते क्या हैं कि वहां एक तीसरा लड़का और मौजूद है। दो उनके साथ आए थे। अब क्या हो? ब्राह्मण, उसका लड़का और ब्राह्मणी बड़े सोच में पड़े।

दैवयोग से हुआ क्या कि लड़की को सांप ने काट लिया। वह मर गई। उसके बाप, भाई और तीनों लड़कों ने बड़ी भाग-दौड़ की, जहर झाड़ने वालों को बुलाया, पर कोई नतीजा न निकला। सब अपनी-अपनी करके चले गए।

दुखी होकर वे उस लड़की को श्मशान में ले गए और क्रिया-कर्म कर आए। तीनों लड़कों में से एक ने तो उसकी हड्डियां चुन लीं और फकीर बनकर जंगल में चला गया। दूसरे ने राख की गठरी बांधी और वहीं झोपड़ी डालकर रहने लगा। तीसरा योगी होकर देश-देश घूमने लगा।

एक दिन की बात है, वह तीसरा लड़का घूमते-घामते किसी नगर में पहुंचा और एक ब्राह्मणी के घर भोजन करने बैठा।

जैसे ही उस घर की ब्राह्मणी भोजन परोसने आई कि उसके छोटे लड़के ने उसका आंचल पकड़ लिया। वह ब्राह्मणी आंचल छोड़ नहीं रहा था। ब्राह्मणी को बड़ा गुस्सा आया। उसने लड़के को झिड़का, मारा, फिर भी वह न माना, तो उसने उसे उठाकर जलते चूल्हें में पटक दिया।

लड़का जलकर राख हो गया। ब्राह्मण बिना भोजन किए ही उठ खड़ा हुआ। घरवाले ने बहुतेरा कहा, पर वह भोजन करने के लिए राजी न हुआ। उसने कहा जिस घर में ऐसी राक्षसी हो, उस घर में मैं भोजन नहीं कर सकता।

इतना सुनकर वह आदमी भीतर गया और संजीवनी विद्या की पोथी लाकर एक मंत्र पढ़ा। लड़का जीवित हो गया।

यह देखकर ब्राह्मण सोचने लगा कि अगर यह पोथी मेरे हाथ पड़ जाए, तो मैं भी उस लड़की को जीवित कर सकता हूं। इसके बाद उसने भोजन किया और वहीं ठहर गया। जब रात को सब खा-पीकर सो गए तो वह ब्राह्मण चुपचाप पोथी लेकर चल दिया।

जिस स्थान पर लड़की को जलाया गया था, वहां जाकर उसने देखा कि दूसरे लड़के वहां बैठे बातें कर रहे हैं।

इस ब्राह्मण के यह कहने पर कि उसे संजीवनी विद्या की पोथी मिल गई है और वह मंत्र पढ़कर लड़की को जीवित सकता है, उन दोनों ने हड्डियां और राख निकाली। ब्राह्मण ने जैसे ही मंत्र पढ़ा कि लड़की जी उठी। अब उसके पीछे आपस में झगड़ने लगे।

इतना कहकर बेताल बोला, राजा, बताओ कि वह लड़की किसकी स्त्री होनी चाहिए?

राजा ने जवाब दिया, जो वहां कुटिया बना कर रहा, उसकी।’

वेताल ने पूछा, ‘क्यों?’

राजा बोला, ‘जिसने हड्डियां रखीं, वह तो उसके बेटे के बराबर हुआ। जिसने विद्या सीखकर जीवन-दान दिया, वह बाप के बराबर हुआ। जो राख लेकर रमा रहा, वही उसका असली हकदार है।’

राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा को फिर लौटना पड़ा और जब वह उसे लेकर चला तो बेताल ने तीसरी कहानी सुनाई।

Keep visiting for more


Meerarathod.blogspot.com


वेताल पच्चीसी:आरंभ

वेताल पच्चीसी:आरंभ


बहुत पुरानी बात है। धारा नगरी में गंधर्वसेन नाम का एक राजा राज करते था। उसके चार रानियाँ थीं। उनके छ: लड़के थे जो सब-के-सब बड़े ही चतुर और बलवान थे। संयोग से एक दिन राजा की मृत्यु हो गई और उनकी जगह उनका बड़ा बेटा शंख गद्दी पर बैठा। उसने कुछ दिन राज किया, लेकिन छोटे भाई विक्रम ने उसे मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा। उसका राज्य दिनोंदिन बढ़ता गया और वह सारे जम्बूद्वीप का राजा बन बैठा। एक दिन उसके मन में आया कि उसे घूमकर सैर करनी चाहिए और जिन देशों के नाम उसने सुने हैं, उन्हें देखना चाहिए। सो वह गद्दी अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर, योगी बन कर, राज्य से निकल पड़ा। उस नगर में एक ब्राह्मण तपस्या करता था। एक दिन देवता ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया और कहा कि इसे जो भी खायेगा, वह अमर हो जायेगा। ब्राह्मण ने वह फल लाकर अपनी पत्नी को दिया और देवता की बात भी बता दी।

ब्राह्मणी बोली: हम अमर होकर क्या करेंगे? हमेशा भीख माँगते रहेंगें। इससे तो मरना ही अच्छा है। तुम इस फल को ले जाकर राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ।

यह सुनकर ब्राह्मण फल लेकर राजा भर्तृहरि के पास गया और सारा हाल कह सुनाया। भर्तृहरि ने फल ले लिया और ब्राह्मण को एक लाख रुपये देकर विदा कर दिया। भर्तृहरि अपनी एक रानी को बहुत चाहता था। उसने महल में जाकर वह फल उसी को दे दिया। रानी की मित्रता शहर-कोतवाल से थी। उसने वह फल कोतवाल को दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह उस फल को उस वेश्या को दे आया। वेश्या ने सोचा कि यह फल तो राजा को खाना चाहिए। वह उसे लेकर राजा भर्तृहरि के पास गई और उसे दे दिया। भर्तृहरि ने उसे बहुत-सा धन दिया; लेकिन जब उसने फल को अच्छी तरह से देखा तो पहचान लिया। उसे बड़ी चोट लगी, पर उसने किसी से कुछ कहा नहीं। उसने महल में जाकर रानी से पूछा कि तुमने उस फल का क्या किया।

रानी ने कहा: मैंने उसे खा लिया।

राजा ने वह फल निकालकर दिखा दिया। रानी घबरा गयी और उसने सारी बात सच-सच कह दी। भर्तृहरि ने पता लगाया तो उसे पूरी बात ठीक-ठीक मालूम हो गयी। वह बहुत दु:खी हुआ। उसने सोचा, यह दुनिया माया-जाल है। इसमें अपना कोई नहीं। वह फल लेकर बाहर आया और उसे धुलवाकर स्वयं खा लिया। फिर राजपाट छोड, योगी का भेस बना, जंगल में तपस्या करने चला गया। भर्तृहरि के जंगल में चले जाने से विक्रम की गद्दी सूनी हो गयी। जब राजा इन्द्र को यह समाचार मिला तो उन्होंने एक देव को धारा नगरी की रखवाली के लिए भेज दिया। वह रात-दिन वहीं रहने लगा।

भर्तृहरि के राजपाट छोड़कर वन में चले जाने की बात विक्रम को मालूम हुई तो वह लौटकर अपने देश में आया। आधी रात का समय था। जब वह नगर में घुसने लगा तो देव ने उसे रोका।

राजा ने कहा: मैं विक्रम हूँ। यह मेरा राज है। तुम रोकने वाले कौन होते होते?

देव बोला: मुझे राजा इन्द्र ने इस नगर की चौकसी के लिए भेजा है। तुम सच्चे राजा विक्रम हो तो आओ, पहले मुझसे लड़ो। दोनों में लड़ाई हुई। राजा ने ज़रा-सी देर में देव को पछाड़ दिया।

तब देव बोला: हे राजन्! तुमने मुझे हरा दिया। मैं तुम्हें जीवन-दान देता हूँ।

इसके बाद देव ने कहा: राजन्, एक नगर और एक नक्षत्र में तुम तीन आदमी पैदा हुए थे। तुमने राजा के घर में जन्म लिया, दूसरे ने तेली के और तीसरे ने कुम्हार के। तुम यहाँ का राज करते हो, तेली पाताल का राज करता था। कुम्हार ने योग साधकर तेली को मारकर श्मशान में पिशाच बना सिरस के पेड़ से लटका दिया है। अब वह तुम्हें मारने की फिराक में है। उससे सावधान रहना। इतना कहकर देव चला गया और राजा महल में आ गया। राजा को वापस आया देख सबको बड़ी खुशी हुई। नगर में आनन्द मनाया गया। राजा फिर राज करने लगा।

एक दिन की बात है कि शान्तिशील नाम का एक योगी राजा के पास दरबार में आया और उसे एक फल देकर चला गया। राजा को आशंका हुई कि देव ने जिस आदमी को बताया था, कहीं यह वही तो नहीं है! यह सोच उसने फल नहीं खाया, भण्डारी को दे दिया। योगी आता और राजा को एक फल दे जाता। संयोग से एक दिन राजा अपना अस्तबल देखने गया था। योगी वहीं पहुँच और फल राजा के हाथ में दे दिया। राजा ने उसे उछाला तो वह हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़ा। उसी समय एक बन्दर ने झपटकर उसे उठा लिया और तोड़ डाला। उसमें से एक लाल निकला, जिसकी चमक से सबकी आँखें चौंधिया गयीं। राजा को बड़ा अचरज हुआ।

उसने योगी से पूछा: आप यह लाल मुझे रोज़ क्यों दे जाते हैं?

योगी ने जवाब दिया: महाराज! राजा, गुरु, ज्योतिषी, वैद्य और बेटी, इनके घर कभी ख़ाली हाथ नहीं जाना चाहिए।

राजा ने भण्डारी को बुलाकर पीछे के सब फल मँगवाये। तुड़वाने पर सबमें से एक-एक लाल निकला। इतने लाल देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ। उसने जौहरी को बुलवाकर उनका मूल्य पूछा।

जौहरी बोला: महाराज, ये लाल इतने कीमती हैं कि इनका मोल करोड़ों रुपयों में भी नहीं आँका जा सकता। एक-एक लाल एक-एक राज्य के बराबर है।

यह सुनकर राजा उसे अकेले में ले गया।

वहाँ जाकर योगी ने कहा: महाराज, बात यह है कि गोदावरी नदी के किनारे मसान में मैं एक मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ। उसके सिद्ध हो जाने पर मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा। तुम एक रात मेरे पास रहोगे तो मंत्र सिद्ध हो जायेगा। एक दिन रात को हथियार बाँधकर तुम अकेले मेरे पास आ जाना।

राजा ने कहा: अच्छी बात है।

इसके उपरान्त योगी दिन और समय बताकर अपने मठ में चला गया। वह दिन आने पर राजा अकेला वहाँ पहुँचा। योगी ने उसे अपने पास बिठा लिया।

थोड़ी देर बैठकर राजा ने पूछा: महाराज, मेरे लिए क्या आज्ञा है?

योगी ने कहा: राजन्, यहाँ से दक्षिण दिशा में दो कोस की दूरी पर मसान में एक सिरस के पेड़ पर एक मुर्दा लटका है। उसे मेरे पास ले आओ, तब तक मैं यहाँ पूजा करता हूँ।

यह सुनकर राजा वहाँ से चल दिया। बड़ी भयंकर रात थी। चारों ओर अँधेरा फैला था। पानी बरस रहा था। भूत-प्रेत शोर मचा रहे थे। साँप आ-आकर पैरों में लिपटते थे। लेकिन राजा हिम्मत से आगे बढ़ता गया। जब वह मसान में पहुँचा तो देखता क्या है कि शेर दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, भूत-प्रेत आदमियों को मार रहे हैं। राजा बेधड़क चलता गया और सिरस के पेड़ के पास पहुँच गया। पेड़ जड़ से फुनगी तक आग से दहक रहा था। राजा ने सोचा, हो-न-हो, यह वही योगी है, जिसकी बात देव ने बतायी थी। पेड़ पर रस्सी से बँधा मुर्दा लटक रहा था। राजा पेड़ पर चढ़ गया और तलवार से रस्सी काट दी। मुर्दा नीचे गिर पड़ा और दहाड़ मार-मार कर रोने लगा।

राजा ने नीचे आकर पूछा: तू कौन है?

राजा का इतना कहना था कि वह मुर्दा खिलखिलाकर हँस पड़ा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। तभी वह मुर्दा फिर पेड़ पर जा लटका। राजा फिर चढ़कर ऊपर गया और रस्सी काट, मुर्दे को बगल में दबा, नीचे आया।

राजा बोला: बता, तू कौन है?

मुर्दा चुप रहा।

तब राजा ने उसे एक चादर में बाँधा और योगी के पास ले चला।

रास्ते में वह मुर्दा बोला: मैं वेताल हूँ। तू कौन है और मुझे कहाँ ले जा रहा है?

राजा ने कहा: मेरा नाम विक्रम है। मैं धारा नगरी का राजा हूँ। मैं तुझे योगी के पास ले जा रहा हूँ।

वेताल बोला: मैं एक शर्त पर चलूँगा। अगर तू रास्ते में बोलेगा तो मैं लौटकर पेड़ पर जा लटकूँगा।

राजा ने उसकी बात मान ली।

फिर वेताल बोला: पण्डित, चतुर और ज्ञानी, इनके दिन अच्छी-अच्छी बातों में बीतते हैं, जबकि मूर्खों के दिन कलह और नींद में। अच्छा होगा कि हमारी राह भली बातों की चर्चा में बीत जाये। मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। ले, सुन।